किसी मंजिल पे जाकर,कोई रुकता कहाँ है?
राहें तो ख़त्म हैं लेकिन,ये सफ़र थकता कहाँ है?
रहे मौसम छक के,जो बरसे पानी,
यूँ ज़मीं से जल्दी,सूखता कहाँ है?
बो भी दूँ ज़मीं में कहीं सगी बातें दो चार,
रुकने तक लम्हों के वो पनपता कहाँ है?
सच बोल कर खुद से,जीता आया हूँ मैं
पर यहाँ कोई अब सच को सुनता कहाँ है?