साँसों के सफ़र में,
चलकर मीलों
दो ही बिल्लाश्तों की
संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं.
ठहरी भीड़ों में ठिठुरते यूँ भी,
सटकर तन्हाईयाँ तापी हैं !
सुबहो से सांझ इस तरह,
चलती हैं साँसों पे साँसे
के ऊबकर साँसे हमने ,
रखके साँसों पे काटी हैं!
इस ज़िंदगी के टुकड़े कई करके
थोड़ी थोड़ी सबमे बाँटीं हैं!
बस दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा,
ज़िन्दगीयाँ नापीं हैं !
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