इन अंधी राहों का
बहरा मुसाफिर
यूँ बन के चलता है ,
कद से सवा इंच को
और तन के चलता है.
रह रह के होठ बस
यही बोल पकड़ते हैं -
" अनजानी राहों का
मैं मस्ताना राही,
कोई सूरज ढलता है
तो कोई चाँद निकलता है "
कहाँ कौन हुआ फुर्सत से
जो बैठे देर कुछ सोचे
किस सूरज के साथ कहाँ
कौन ढल जाये ?
कोई चाँद फलक आये
कहाँ कौन निकल जाये ?
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