जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
लफ्ज़ मोगरे की रंगत के !
कुछ मिसरे नक्श तुम्हारे लिए!
नज़्म जो मुस्काए तुम-सी,
कुछ तुम-सा सरे आम करे!
हम घावों की रंगीं महफ़िल में,
इक ज़ख्म तुम्हारे तुम्हारे नाम करें!
जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
kya baat ... kya baat .. kya baat
ReplyDeletebahut khoob kaha hai sarkar.....