दिन के बोझ तले,
जाने कहीं जब?
फुर्सत दबी रह जाती है, और
ऐसे-ऐसे कई रोज़ गुज़र जाते हैं!
तो महसूस होता है के,
रिश्तों में कुछ ऐठन सी आने लगी है !
मरासिमों की वो नरमाहट,
बुरादा होकर झड़ने-सी लगी है !
और फिर जब,
तुम्हारा कोई पैग़ाम, छोटा सा सही,
कभी जो मुझ तक, पहुँच जाता है,
तो ये एहसास भी हो जाता है,
के रेगिस्तान के राही का,
नकली पानी का वो असली सपना भी ,
कितना हौसलेमंद होता है!
जो ये महसूस करा देता है
के प्यास बुझाने वाला कुछ-
पानी भी ज़ुरूर होता है!
No comments:
Post a Comment