Monday, August 16, 2010

रहे मौसम छक के,जो बरसे पानी


किसी मंजिल पे जाकर,कोई रुकता कहाँ है?
राहें तो ख़त्म हैं लेकिन,ये सफ़र थकता कहाँ है?  

रहे मौसम छक के,जो बरसे पानी,
यूँ ज़मीं से जल्दी,सूखता कहाँ है?

बो भी दूँ ज़मीं में कहीं सगी बातें दो चार,
रुकने तक लम्हों के वो पनपता कहाँ है?

सच बोल कर खुद से,जीता आया हूँ मैं
पर यहाँ कोई अब सच को सुनता कहाँ है?
   

Sunday, August 15, 2010

इस सूखे सफर में कहीं


इस सूखे सफर में कहीं 
भीगा कोई मुकाम करें,
इक मुलाकात और सही,
इक और अस्सलाम करें.

फिर तो नसीबन मुरझाने को,
हर गुलसितां है,
उठ जाने को बा-किस्मत ,
हर इक कदम है!
जब तक चलें, रुक-रुक के सही,
कुछ तो कलाम करें!     

इक मुलाकात और सही,
इक और अस्सलाम करें!