Tuesday, October 26, 2010

पानी भी ज़ुरूर होता है!


दिन के बोझ तले,
जाने कहीं जब?
फुर्सत दबी रह जाती है, और
ऐसे-ऐसे कई रोज़ गुज़र जाते हैं!
तो महसूस होता है के,
रिश्तों में कुछ ऐठन सी आने लगी है !
मरासिमों की वो नरमाहट,
      बुरादा होकर झड़ने-सी लगी है !

और फिर जब,
तुम्हारा कोई पैग़ाम, छोटा सा सही,
कभी जो मुझ तक, पहुँच जाता है,
तो ये एहसास भी हो जाता है,
के रेगिस्तान के राही का,
नकली पानी का वो असली सपना भी ,      
कितना हौसलेमंद होता है!
जो ये महसूस करा देता है 
के प्यास बुझाने वाला कुछ-
पानी भी ज़ुरूर होता है!

इक नज़्म तुम्हारे नाम करें


जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
लफ्ज़ मोगरे की रंगत के !
कुछ मिसरे नक्श तुम्हारे लिए!
नज़्म जो मुस्काए तुम-सी,
कुछ तुम-सा सरे आम करे!
  हम घावों की रंगीं  महफ़िल में,
इक ज़ख्म तुम्हारे तुम्हारे नाम करें! 
जाने क्यूँ खाहिश होती थी,

इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.

Sunday, October 3, 2010

रिश्तों की बेहिसाबी में


रिश्तों की बेहिसाबी में,
 इक यूँ भी रात आई-
उनकी इक मुबारक के,
 शुक्रिया तीन अदा हुए!

जो बातें चलीं,
 तो सामने बात आई-
के फिर मिल गए तो
फिर गुमशुदा हुए!

जो पढ़ गए औ' बढ़ गए
तो तो कुछ नहीं!
जो रुक गए कुछ देर तो ,
तो गम-ज़दा हुए!

मुलाकातें नहीं बस,
बातें हुईं थीं!
नाज़ुक तो थे हालात,
अब खुशनुमा हुए!

रिश्तों की बेहिसाबी में,
इक यूँ भी रात आई-
उनकी इक मुबारक के,
शुक्रिया तीन अता हुए!