Tuesday, October 26, 2010

इक नज़्म तुम्हारे नाम करें


जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
लफ्ज़ मोगरे की रंगत के !
कुछ मिसरे नक्श तुम्हारे लिए!
नज़्म जो मुस्काए तुम-सी,
कुछ तुम-सा सरे आम करे!
  हम घावों की रंगीं  महफ़िल में,
इक ज़ख्म तुम्हारे तुम्हारे नाम करें! 
जाने क्यूँ खाहिश होती थी,

इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.

1 comment:

  1. kya baat ... kya baat .. kya baat


    bahut khoob kaha hai sarkar.....

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