Sunday, May 30, 2010

कई गांठें जिन्दगी की




जो धूप नज़र से टपकती है ,
उम्मीदें गर्म कर देती है !
मुंह में भरकर ठन्डे अरमान 
जो फूँक देती है,
ये सूरज बुझा देती है !
बातों में सनें खाबों को 
जो बोल देती है ,
कई गांठें जिन्दगी की 
खोल देती है!
जो कुछ भी कहूँ
मैं उसके बारे में,
 दुनिया उसे नज़्म 
बोल देती  है !

Saturday, May 29, 2010

कदम बार बार



कदम बार बार 
थमनें को कहते हैं,

अध-खुली आँखें 

कराहती रहतीं  हैं,
जैसे जी के ज़ख्म
सराहती रहतीं हैं. 

जिगर ज़ार ज़ार औ' 
धडकनें महफूज़ हुईं, 
सांसें थकी-थकी सी 
बैठने को कहतीं हैं,

लगता है अब में सब 
उठने को है लेकिन ,
तुम्हारी बातें हैं के 
गहराती रहतीं हैं ?

मुझसे, मुझको 
बहकाती रहतीं हैं! 

Friday, May 28, 2010

ये टूटा चुल्हा



टूटा  चूल्हा  देखकर
मालूम होता था-
कोहरे के बिछौने पे 
यहाँ कोई सोता था।
और जब देर रात कभी
ज़ोर का जाड़ा होता हो,
तो उठकर, ये ठंडा चूल्हा  
टटोलता हो।
काश! बुझी बात का
कोई टुकड़ा अब भी
जलता हो!
और नाउम्मीद फ़िर
यही सोचता हो-  
साँझ तो बातें बुझी हैं,
सुबहो तलक 
हर खाब गबन होगा!
इसी चूल्हे में सिमटकर
फ़िर खुद आप हवन होगा!

करीब से देखो 
तो तुम्हे भी 
यही मालूम होगा
ये टूटा चूल्हा, ये बुझी आग
बहुत जाग कर कोई 
एक नींद को सोता होगा...!


Thursday, May 27, 2010

परेशानियों का मेरी सबब है जो


परेशानियों का मेरी सबब है जो, 
दर-असल वो मेरा मददगार भी है.

उम्र-ए-दराज़ की जो सजा पायी है मैंने
इसमें कुछ तो वो गुनाहगार भी है.

यूं अनजाने क्या कुछ कहता फिरा उसको 
बयान-ए-होश तो परवरदिगार ही है.

ख़यालों में  'गयास' खिला गुल नहीं वो
मौसम-ए-बहार में बेशुमार भी है.   

Wednesday, May 26, 2010

नज़्म से ही बातें किया करते हैं!



अब तो बस नज़्म से

ही बातें किया करते हैं! 
अरसों की मुलाकातें 
बस यहीं हुआ करतीं हैं।


बाहर के शराबे में कुछ 

कहें-सुनें भी तो कैसे? 
सन्नाटों में वो आहट 
बस यहीं मिला करतीं हैं।


सब ओर सब सुखा 

विराना सा लगता है,
जी कि दो-बातें, दो-कलियाँ 
बस यहीं खिला करतीं हैं।



अब तो बस नज़्म से

ही बातें किया करते हैं! 

जी भर के दो-साँसे 
बस यहीं लिया करते हैं।


Tuesday, May 25, 2010

कोई बबूल उग गया है!




छटपटाहट जी को 
ऐसी होती है के,
हर सूरज आरज़ू का 
बुझ गया है!

कुछ तो खालीपन है ,
कि कुछ लुट गया है! 
शोर सन्नाटे का अब
होता है जैसे 
एक ही पल में सब 
फुँक गया है!

देखो तो अभी-अभी
राख के ढेर से
बंजर से वहां,
फ़िर कोई बबूल
उग गया है!

Sunday, May 23, 2010

याद आती है इतनी क्यूँ, फिर माँ की आज



याद आती है इतनी क्यूँ,  फिर माँ की आज 
अरसे से उसे गर पल को भी भुलाया होगा ?
चूल्हे की आंच में जो, रखती होगी वो लिट्टियाँ, 
मुझे बुला कर पास चूल्हे ने, जरूर उसे रुलाया होगा...
 या फिर ..   


नीली पैंट, सफेद कमीज़ पहिने, घर को लौटता

स्कूल का कोई लड़का उसको नज़र आया होगा,
और दशक पीछे की बातें कहकर के
आंसुओं में आँचल फिर नहाया होगा...


अब इतनी दूर से , क्या ही कर सकता हूँ  माँ ?
लूँगा आकर खबर इनकी, वो चूल्हा, वो लिट्टी
और वो स्कूल का लड़का 
जो इन्होने तुझको  रुलाया होगा ...
लेकिन फिर माफ भी तो कर देता हूँ 
हर किसी को ये सोचकर -
इसकी भी कोई माँ होगी, उसका ये बेटा होगा.

क्या कहूँ तुझको जो, इतनी भोली है 
सोचा है बैठकर फुर्सत से जब कभी, 
जाने कितना ही इन आँखों से भी
थम-थम कर पानी आया होगा.  

याद आती है इतनी क्यूँ,  फिर माँ की आज...
स्कूल का कोई लड़का उसको नज़र आया होगा...
मुझे बुला कर पास चूल्हे ने, जरूर उसे रुलाया होगा..     

Saturday, May 22, 2010

धीमें से फ़ासला


बड़े धीमें से फ़ासला 
यूँ बीच में घर करता था,
और एक कदम को जब
ज़रा सा बढ़ता था,
सूखी आँख में कोई 
निशाँ सा बनता था |
जो पूछ देते थे 
आँखों में झाँकने वाले 
के इन्हें हुआ क्या है?
मैं कह देता था -
"कुछ नहीं बस...
इक खाब ही था... ,
जो इन आँखों को 
जख्मी करता था !"
...बड़े धीमे से फ़ासला ,   
यूँ बीच में घर करता था... |

    
Description : Very slowly there creeps in differences between the lover and the beloved.
and as the distance grows a little greater, it puts hard pain in the already dried eyes of the 
lover and there by such signs can be clearly seen in the eyes.     
When asked by the near and dear ones about what had happened to yours eyes? He used to 
honestly reply- "Its nothing but there was a dream in the eyes for so long and it had been
paining like a thorn there and thus there is the sign in the eyes." and now the distances are there.

Sunday, May 9, 2010

जंगली सही कुछ


सरे बाज़ार यूँ हर पेड़,
है खुश कहाँ?
सोई सी पाती, झुकी सी शाखें, 
इसे कुछ रंज होता है !, 
खुदी में नज़रबंद होता है !
जंगल में शजर हर कोई  
जगी, तनी पातियों में, 
हर शाख में तना,
जंगली सही कुछ,
 मगर बड़ा खुशरंग होता है  !


Saturday, May 8, 2010

ये जलते दिन और ये अमलतास




ये जलते दिन और ये अमलतास,
कुछ करीबी नाता जान पड़ता है अब 
सूरज से इसका.
मालूम होता है, 
रोज रात को सूरज इसकी 
शाखों में झूले झूलता है.
और सुबहो में कभी चुप चाप 
अपने ठिकाने हो लेता है.
लेकिन वो रात की कुछ मंद लपटें, 
इसकी शाखों में उलझी रह जातीं हैं,
और पूरे दिन झूलतीं रह जातीं हैं...

कल रात मेरा जी भी तो... 
तुम्हारी कुनगुनी बातों में 
ढल जाया करता था...,  
सुबहो तलक अपनी बातों में जी को  
तेज़ झूले झुलाया करता था...
लेकिन अबकी इस खामोश दुपहरी में 
जी की शाखों में झूलती  बातें,
मुझे अब उलझाने भी लगीं हैं !
रह रहकर जी को जलाने भी लगीं हैं !

कहीं ये अमलतास भी... 
अनजाने में यही तो नहीं कहता रहा है... 
मेरे जी सरीका यूँ ही जलता रहा है... !!!

Wednesday, May 5, 2010

वर्ना, सन्नाटों में अब, वो 'गयास' नहीं होता !








चहल कदमी उन बातों की, जो होवे दूर तलक 
लौट आने का मुमकिन, इंतज़ार नहीं  होता.


जी से थमनें की आहटें होती हैं बस 
आगे किसी धड़कन का, आगाज़ नहीं होता.


बेवक्त रुकी खामोशी से, कैसे चलेगा सफ़र ?
मौका-ए-चर्चे में और, कुछ ख़ास नहीं होता.
 
चलते चले जायेंगे हम, जो ये बातें चलेंगी  
       वर्ना, सन्नाटों में अब, वो 'गयास' नहीं होता !   



Monday, May 3, 2010

रही और नहीं खाहिश कोई


तुम्हें सोचा करें और लिक्खा करें,
रही और नहीं खाहिश कोई.
 जिए ता-उम्र इक गुज़ारिश किये,
करे और भी क्या आजमाइश कोई.
हो लेना मेरे कूचे, आखिरी वक़्त है,
अब और नहीं फरमाइश कोई.
धीमीं साँसें 'गयास' कुछ और भी ले,
गर आने की हो गुंजाईश कोई.  

   

Saturday, May 1, 2010

अजीब जस्तापन है!

चंद बातें कह-कर उनसे,
चंद बातें सुन-कर उनकी,
अकसर लोग ये अंदाज़ा बयाँ करते है:-
के शख्सियत जब इतनी सादी है,
तो दिल भी कितना हल्का होगा।

बतलाता हूं मैं उन्हीं चंद लोगों को,
क्या कभी छूकर देखा है
उसी जस्ता-ए-दिल को ?
मालूम कुछ यूं होगा कि किसी
जस्ते की कम्पनी का बनाया हुआ
कोइ जस्ते का सामान है।

जस्ते का सा हलकापन है,
जस्ते की सी साफ़ रन्गियत।
और जस्ते सी हि कुछ
पथराइ सख्ती लिये हुए,
अजीब जस्तापन है!
लेकिन हो चाहे कितनी ही
खूबियाँ इसमे जस्ते सी,
है तो नहीं ये,
रीयूज़ेबल जस्ते सा!

अभी तो... बाकी थी होनी


अभी तो... बाकी थी होनी,

चाँद तारों की बातें.........,

अभी अभी तो... बस होते,

हम दोनो हि कहीं फ़लक मे।

लेकिन अब क्या कहूँ,कैसे लिक्खूँ,

सूखते से जाते हैं..... हर अल्फ़ाज़

और........ चुभते रहते हैं काटों से,

इस सिकुड़े हुए.......... हलक मे।

क्यूँ कमबख्त हम खुद को


क्यूँ कमबख्त हम खुद को

फ़िर उन्हीं गलियों मे पाते हैं?

नये जान से पड़ते हैं मोड़,

जहां से रोज़ हि जाते हैं!

लगता भूल गये अबके

पिछली हि सौदे बाज़ी,

किस कदर झेली थी

टोकरे भर की नाराज़ी।

ये कैसी नाराज़गी,

जो बार बार होती है?

ये कैसा बचकानापन,

जो रुक रुक के होता है?

कब तलक होंगी बातें,

खामोशियों से हमारी?

ये कौन है मुझमे कहीं

जो चुप-चाप रोता है?

हम जागते से बैठे हैं,

इक उम्र-से यूं हीं ,

जब तनहाईयों मे थक-कर ,

हर शख्स सोता है ।

फ़िर घेर लेते हैं लफ़्ज़,

फ़कत उलझे उलझे से हैं,

टँगड़ी मार कर ज़ुबाँ में ,

बनते बूझे बूझे से हैं।

गुदगुदाने ये मन


अभी अभी तो
गीली की थी मिट्टी ,
उठने लगी थी
कोइ भीनी खुशबू।
नहाती-सी थी ये
आबो-हवा,
होने लगी थी
सौन्धी-सी आरज़ू।

खनखनाते थे
हर शाख पे पत्ते,
मेहकता-सा था आँगन।
चेहकते-से थे परिन्दे,
खुद को ही लगा था शायद
गुदगुदाने ये मन।

टाकों के धागों से


पुर-ज़ोर कोशिशो से खफ़ा होकर

दौरे-ज़िक्र होने से हर साँस,

जब तू जवाब दे ही बैठती है!

तो मालूम होता है...

तेरे अलफ़ाज़ काँटो से

धँस गये हैं और

चोट तो ये बखूबी

कर जाते हैं जी में...

फ़िर जब सुबहो को उठता हुँ

तो पाता हुँ के तेरे वो लफ़्ज़

टाकों के धागों से अब

गल कर काफ़ूर हैं जी से।

कहीं कोई नामोनिशाँ नहीं है

सब कुछ उजला-उजला सा

दुरुस्त है अपनी जगहा

बाकी अब कोई भी दर्द

कोई छाँव नहीं है।

ये गुफ़्तगू ही


ये गर्म, साँसें कुछ सर्द

मालूम होतीं हैं अब,

भीतर किसी बर्फ़ानी झील को

छूकर चलतीं हैं अब।

भीतर कहीं कुछ

रिसता-सा है

कोई दर्या कोइ

शक्ल लेता-सा है

तेरी नमंज़ूरी से

कोइ शिकायत

नहीं होती मुझको

ये गुफ़्तगू ही आप एक

किस्सा-सा है।

नींव


तेरे इन खयालों की ईटालियाँ

इक्कट्ठी कर ली हैं,

नाराज़गी मे अनकहे जज़बातों से

क-ई बारदाने भर ली हैं,

एक एक कर के मुझपे फ़ेंकी

वो वज़नी बातें उफ़! ट्रालियों से

उठवाकर बुलवाई हैं मैने.

कभी आ कर देखो, के किसी

आलीशान कब्र के जितनी

गेहराई लेकर

बेमिसाल नींव उठवाई है मैने.

'फ़िर भी ये मुमकिन नहीं'


वे बारबार कहते हैं के

'हर जज़बात समझते हैं',

वे हरबार सुनाते हैं के

'फ़िर भी ये मुमकिन नहीं'


हरदम कि चाहत है उनकी

कहीं ठेस लगे ना मेरे जी को

पूछती रवाँ हर साँस भी है

'मेरे कि तुम होते कौन हो'?


इतना कुछ सोचकर तुम्हे


इतना कुछ सोचकर तुम्हे,

ज़रा-सा कुछ लिख पाता हूँ।

तुम नहीं कुछ तो

पढ़ ही लिया करो

कुछ सोचकर।

ज़रा कुछ

मेरी सोच की रह जाएगी

और कुछ कहे की भी मेरे।


वो पागल जज़बात गुम थे


वो पागल जज़बात गुम थे

हो गये थे ना-जाने किधर।

अब फ़रियादें होती हैं,

मिन्नतें होतीं हैं,

यहाँ तक के सजदे कदमों पर।

फ़िर भी एहसान फ़रामोश

समझा जाता हूँ,

लानत बिखेरते हैं ये मुझ पर।

पूछते दफ़े बीस हैं के

हम कहाँ थे गुम बिछड़े हुए

ढूँढते फ़िरे ये पीछे यूँ

के ग-ई इक उम्र् गुज़र ।


कोइ दरख्त हो गया हूँ मैं


इतना कुछ लिया है तुमसे

के मेहसूस करने लगा हूँ मैं,

ये बसंत का मौसम है और

कोइ दरख्त हो गया हूँ मैं।

नये पत्तों,हरी कोंपलों से ढका

रहा कुछ भीग गया हूँ मैं।

रही उपर को बढ़ती फ़िर

कोई सीलन सी है।

उठती पेट से हुई

कोई गुदगुदी सी है।

पहुँचती आँखों तलक

जी को सींचती सी है।

और फ़िर मूँद लेने पे आँखें

दिखती कहीं खाबों मे जाके

उड़ती फ़िरती

कोई तितली सी है

और कभी जी पे बरसती

बदरी सी है।


ज़िंदगी किसी किताब सी


ज़िंदगी किसी किताब सी
उलट कर रखी पड़ी है,
थम थम के चलते ये
जज़बात आँधी से
खोल के रख देते है किस्से
छिपे मोटी जिल्द के बीच।
फ़ड़फ़ड़ा उठती है ये,
और कराह उठते हैं पन्ने।
और ये पथरीली आँधी है के
एक-एक कर
आखिरी पन्ने तक
तलाशती है कुछ।

शायद नहीं मालूम उसे
गये कुछ रोज़, बल्कि
और पहले हि कुछ
और गर्म हवाओं ने
हल्ला बोला था।
कुछ मोड़ कर रक्खे हुए
अलग से कोइ नाम
और पता लिक्खे हुए
उस रंगीन कागज़ के टुकड़े को
ले गयीं थी कैदी करार कर,
कहीं बहुत ऊँचे उड़ा कर।
और किले की दीवार से
झोंक दिया नीचे!

सुना है, वहीं वादियों मे उसकी
अब सुफ़ैद जिस्मानी लाश पड़ी है,
और करीब ही कहीं खून से लथपथ
उसकी रूह भी बद-हवास पड़ी है।

काबिल-ए-तारीफ़ हूँ लेकिन


काबिल-ए-तारीफ़ हूँ लेकिन
तुमसे नज़र-अंदाज़ हुए रहता हूँ।

उस सबब-ए-नाराज़गी से मैं
भीतर उदास हुए रहता हूँ।

लिख दिये माफ़िनामे फ़िर भी
क्यूँ सजा-ए-साज़ हुए रहता हूँ?

एक ही बार तो कहा था 'जानम'!
क्यूँ बेबस हरबार हुए रहता हूँ?

कुछ दूरियाँ बना के


ना सुना हो ऐसा

के पहले कभी तुमने

नींदे उड़ जायें किसीकी

बातों से तुम्हारी,

ना हुआ है ऐसा भी

पहले कभी मुझसे

के जागते काटीं हो रातें

चंद ज़िद्दी खयाल पाले।

या कि ख्वाबों में कहीं

चलते चले हों पैदल,

हम-साये सरीके दो हम,

कुछ दूरियाँ बना के।