Saturday, May 1, 2010

गुदगुदाने ये मन


अभी अभी तो
गीली की थी मिट्टी ,
उठने लगी थी
कोइ भीनी खुशबू।
नहाती-सी थी ये
आबो-हवा,
होने लगी थी
सौन्धी-सी आरज़ू।

खनखनाते थे
हर शाख पे पत्ते,
मेहकता-सा था आँगन।
चेहकते-से थे परिन्दे,
खुद को ही लगा था शायद
गुदगुदाने ये मन।

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