चाहे कितना ही जूझकर
तुम्हारे खयालों से,
इस झूलती खाट पे
जब पड़ता हूँ खीझकर ।
सूखी नींदे इन आंखों मे,
नम पड़ती ही नहीं हैं।
पिघले सीसे सी चुभन
कम पड़ती ही नहीं है।
और फ़िर परेशान होकर,
इसकी कभी की बीनी
ढीली नेवार उधेड़कर
एकबार फ़िर से इसे
कसने की जुगत करता हूँ।
के जब सीधी खाट पर पड़ूँगा
तो क्या मालूम,
पीठ की सीध पाकर
झुका जी भी कुछ सीधा हो जाये।
ज़रा देर को यूँ ही पड़े रहें,
और एक नींद ही हो जाये!
feels more oral and less words..
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