Saturday, May 1, 2010

ज़िंदगी किसी किताब सी


ज़िंदगी किसी किताब सी
उलट कर रखी पड़ी है,
थम थम के चलते ये
जज़बात आँधी से
खोल के रख देते है किस्से
छिपे मोटी जिल्द के बीच।
फ़ड़फ़ड़ा उठती है ये,
और कराह उठते हैं पन्ने।
और ये पथरीली आँधी है के
एक-एक कर
आखिरी पन्ने तक
तलाशती है कुछ।

शायद नहीं मालूम उसे
गये कुछ रोज़, बल्कि
और पहले हि कुछ
और गर्म हवाओं ने
हल्ला बोला था।
कुछ मोड़ कर रक्खे हुए
अलग से कोइ नाम
और पता लिक्खे हुए
उस रंगीन कागज़ के टुकड़े को
ले गयीं थी कैदी करार कर,
कहीं बहुत ऊँचे उड़ा कर।
और किले की दीवार से
झोंक दिया नीचे!

सुना है, वहीं वादियों मे उसकी
अब सुफ़ैद जिस्मानी लाश पड़ी है,
और करीब ही कहीं खून से लथपथ
उसकी रूह भी बद-हवास पड़ी है।

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