Saturday, May 1, 2010

'नहीं आज के बाद'


उस कल से मेरे यहाँ रात ही बरसती रही
तस्लीमें सुबह-ओ-शाम जाने को तरसती रहीं।

वो तुम ने केह जो दिया 'नहीं आज के बाद'
तो ज़िन्दगी इस आज में ही सरकती रही।

किरनों का अता-पता नहीं अब तलक मुझको
न-जाने किन अँधियारों में ये उलझतीं रहीं।

अब के होश आया है तुम्हारा ही नाम लेकर,
साँसे भी धड़कनों सी कहीं भटकती रहीं।

अब और रुसवा न-करो मुझको माफ़ करो,
दौराँ तुम खुद भी तो रहरहकर संभलती रहीं।

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