Saturday, May 1, 2010

क्यूँ कमबख्त हम खुद को


क्यूँ कमबख्त हम खुद को

फ़िर उन्हीं गलियों मे पाते हैं?

नये जान से पड़ते हैं मोड़,

जहां से रोज़ हि जाते हैं!

लगता भूल गये अबके

पिछली हि सौदे बाज़ी,

किस कदर झेली थी

टोकरे भर की नाराज़ी।

ये कैसी नाराज़गी,

जो बार बार होती है?

ये कैसा बचकानापन,

जो रुक रुक के होता है?

कब तलक होंगी बातें,

खामोशियों से हमारी?

ये कौन है मुझमे कहीं

जो चुप-चाप रोता है?

हम जागते से बैठे हैं,

इक उम्र-से यूं हीं ,

जब तनहाईयों मे थक-कर ,

हर शख्स सोता है ।

फ़िर घेर लेते हैं लफ़्ज़,

फ़कत उलझे उलझे से हैं,

टँगड़ी मार कर ज़ुबाँ में ,

बनते बूझे बूझे से हैं।

1 comment:

  1. bhai,
    esaa lagta hai,jaise mere dil ke alfaajo ko teree jubaa mil gai.

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