Wednesday, September 22, 2010

हाल कैसे हैं आज कल?


यूँ वक़्त गुज़र
तो रहा है सुकूँ से,
लेकिन वही कसक 
उठ भी जाती है फिर से, 
ज़हन-ओ-जी हलकान हुआ जाता है!
जब पूछ देते हो तुम की -
"हाल कैसे हैं आज कल?"

कुछ गिरता उठता सा
शोर होता तो रहा है जी से.
पर जाने क्यूं नब्ज़
बुत हो भी जाती है फिर से,
जब हकीमी लिबास में तुम
रखकर अपना हाथ इस पे
पूछ देते हो और के -
"हाल कैसे हैं आज कल?"



    

Thursday, September 9, 2010

दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं.


साँसों के सफ़र में, 
चलकर मीलों 
दो ही बिल्लाश्तों की 
संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं. 

ठहरी भीड़ों में ठिठुरते यूँ भी,
सटकर तन्हाईयाँ  तापी हैं !
सुबहो से सांझ इस तरह,
चलती हैं  साँसों पे साँसे 
के ऊबकर साँसे हमने ,
रखके साँसों पे काटी हैं!

इस ज़िंदगी के टुकड़े कई करके 
थोड़ी थोड़ी सबमे बाँटीं हैं!
बस दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा,
ज़िन्दगीयाँ नापीं हैं !