Thursday, September 9, 2010

दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं.


साँसों के सफ़र में, 
चलकर मीलों 
दो ही बिल्लाश्तों की 
संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं. 

ठहरी भीड़ों में ठिठुरते यूँ भी,
सटकर तन्हाईयाँ  तापी हैं !
सुबहो से सांझ इस तरह,
चलती हैं  साँसों पे साँसे 
के ऊबकर साँसे हमने ,
रखके साँसों पे काटी हैं!

इस ज़िंदगी के टुकड़े कई करके 
थोड़ी थोड़ी सबमे बाँटीं हैं!
बस दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा,
ज़िन्दगीयाँ नापीं हैं ! 


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