Saturday, June 26, 2010

तो क्या खाब की बातें, क्या खयाल की?



जो दिनों ना हों बस्तियाँ,
ना रातें ही रहायशी !
तो क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?

साँसें सुलग जातीं हैं,
और धुँआँ नहीं बुझता!
आँखें लहक जातीं हैं   
पर खाब नहीं उठता!
जो दफ़न हर जवाब
करते हों धुँआँ हर सवाल!
तो क्या जवाब की बातें,
क्या सवाल की? 

जो छीन कर,
बूंदें सरक से,
दरिया उबलता है !
पर डूब कर जिसमे  
फ़लक की महक ना मिलती हो !
तो क्या छूट जाने की बातें,
क्या विसाल की ?

जो लिख देने से मेरे,
आँखों कोई लम्हा ना उतरा हो!
या पढ़ देने से जी,
कुछ देर ना थम जाये !
तो क्या 'गालिब' की बातें
क्या 'गयास' की?  
क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?  
When I couldn't behold Days
altogether the nights
what could I say
for the dreams 
and the sights

when breath burns up
but fume doesn't stop
eyes get grilled but
dreams don't hop 
when buried all replies
smoke up the asked
what could I say for answer
and what for asked.

Snatching droplets
from the sky
springs spring up
without being shy
on diving deep
into the river
one can't get fragrance
of the sky
What could I say for 'Hi'
and what for 'Bye'

On the writing of mine
one can't remember past
on reading some line
hearts don't say 'Alhas!'
then abandon the 'Ghalib'
and leave the 'Ghayas'
what could I say
for the dreams
and what for thoughts

Thursday, June 24, 2010

एक टक निहारता हूँ


एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से,
कागज़ पर फ़ैले,
अधूरे खयालों को-
तो हम-कदम ये वक्त
कुछ देर को,
थम सा जाता है !
और मासूम कोइ खाब
जल-सा जाता है !
खयालों से लदीं
पलकें झँप जातीं हैं,
और फ़िसलकर दो बूंदं खाब
किस्से को एक मोड़
'और' दे जाते हैं।
मुझे कुछ मायूस ,
'और' छोड़ जातें हैं
एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से -
तो बचा रहा वो खयाल
कुछ खल-सा जाता है !
थमा-थमा सा कुछ
चल-सा जाता है !

Monday, June 7, 2010

कोई सूरज ढलता है तो कोई चाँद निकलता है


इन अंधी राहों का
बहरा मुसाफिर
यूँ बन के चलता है ,
कद से सवा इंच को
और तन के चलता है.
 रह रह के होठ बस 
यही बोल पकड़ते हैं -
" अनजानी राहों का 
मैं मस्ताना राही, 
कोई सूरज ढलता है  
तो कोई चाँद निकलता है "
कहाँ कौन हुआ फुर्सत से 
जो बैठे देर कुछ सोचे  
किस सूरज के साथ कहाँ
कौन ढल जाये ?
कोई चाँद फलक आये 
कहाँ कौन निकल जाये ?

Thursday, June 3, 2010

ख़यालों की खुली झालर बाँध लें



ख़यालों की खुली झालर बाँध लें  
उम्मीदों पे बातें टिका कर
ज़रा दिनों को आराम दें,
के यूँ भी कई रातों से हमसे  
कई रातें नाराज़ हुई बैठीं हैं !   
कहती हैं - -
बस दिन ही दिन मनाते हो ,
आओ कुछ तो खाब सजा लें ! ?
अब इसे  कुछ जवाब दें ही दें 
और ज़रा देर को ही सही 
जी को बांधकर 
किसी मटके में डाल दें , 
किसी नखलिस्तान* से 
कुछ सुकूँ मांग लें, 
उम्मीदों पे बातें टिका कर
ज़रा दिनों को आराम दें,
कुछ कहा इसका भी मान लें ... 



*नखलिस्तान  = Oasis in desert

Tuesday, June 1, 2010

बंद किये कमरा, कोई बैठा रहता है... !



बंद किये कमरा  
कोई बैठा रहता है !
ख़याल ज़मीं पे 
रेंगा करता है !
जो बाहर से कोई 
बुला बैठता है, 
खाब दीवारें 
चढ़ने लगता है !
चाहे कितना ही
ना कह दें उसको, 
बोझिल बातों की,  
जी कहाँ सुनता है ?  
और फिर मुंह के 
बल गिरता है!  
बंद किये कमरा ,
कोई बैठा रहता है... !