Thursday, June 24, 2010

एक टक निहारता हूँ


एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से,
कागज़ पर फ़ैले,
अधूरे खयालों को-
तो हम-कदम ये वक्त
कुछ देर को,
थम सा जाता है !
और मासूम कोइ खाब
जल-सा जाता है !
खयालों से लदीं
पलकें झँप जातीं हैं,
और फ़िसलकर दो बूंदं खाब
किस्से को एक मोड़
'और' दे जाते हैं।
मुझे कुछ मायूस ,
'और' छोड़ जातें हैं
एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से -
तो बचा रहा वो खयाल
कुछ खल-सा जाता है !
थमा-थमा सा कुछ
चल-सा जाता है !

1 comment:

  1. KHYAAL JISKE BHEE HAI...BAHUT GAMBHEER KHYAAL HAIN....

    "वक़्त का क्या है, बदल जायेंगा कभी भी
    मेरी मानो तो मुझपे भी भरोसा ना करो"

    ReplyDelete