Monday, June 7, 2010

कोई सूरज ढलता है तो कोई चाँद निकलता है


इन अंधी राहों का
बहरा मुसाफिर
यूँ बन के चलता है ,
कद से सवा इंच को
और तन के चलता है.
 रह रह के होठ बस 
यही बोल पकड़ते हैं -
" अनजानी राहों का 
मैं मस्ताना राही, 
कोई सूरज ढलता है  
तो कोई चाँद निकलता है "
कहाँ कौन हुआ फुर्सत से 
जो बैठे देर कुछ सोचे  
किस सूरज के साथ कहाँ
कौन ढल जाये ?
कोई चाँद फलक आये 
कहाँ कौन निकल जाये ?

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