Wednesday, July 28, 2010

होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा,और कोइ खुशबास हो जाऊँ!

होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा
और कोई खुशबास हो जाऊँ!
जन्ज़ीरें पिघल जाएं,
और मैं आज़ाद हो जाऊँ!



किसी नदी मे बहकर,
कोई समन्दर छू आऊँ!
या बादल का कोई,
टुकड़ा हो जाऊँ!
छनक के बरसूँ,
किसी तपते हुए जी पर ,
और छूकर भाप हो जाऊँ!

किसी मन्दिर को जाती
कोई राह हो लूँ,
कभी नमाज़ मे घुलकर,
अजान के सुरों चढ़कर,
कोई अरदास हो जाऊँ!

आपे मे कितनों को,
लादे फ़िरता हूँ खुद पर!
पटक कर इनको कहीं,
ज़रा बे-आप हो जाउँ!
होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा
और कोई खुशबास हो जाऊँ!



छू लेने को ज़मीं,


गुज़रे वो दिन,मुमकिन
अब के फ़िरे हैं,
छू लेने को ज़मीं,
जो बादल गिरे हैं!

देख आया हूँ मैं
खोदकर ज़मींने,
जगहों-जगहों पे मुझको
चश्में मिलें हैं!

बाँधकर हकीकत से
डुबो आया था जिनको,
परछाँईं में पानियों की
फ़िर वो सपने दिखे हैं.

बनी राहों की कोई,
दरकार किसे है?
पाने को मंज़िल जो,
हम बे-मंज़िल चले हैं!







Thursday, July 8, 2010

खाब भी बरसते हैं


कभी सुना भी था के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!
मैने देखा था बीते रोज़,
नहीं बरसे थे, बादल मेरे गाँव,
बस आँखें बरसीं थीं!
खाली  थे खलिहान भीगने को,
बागें तरसीं थीं! 
अबके फ़िर उठे हैं खाब
समंदर से गर्म होकर,
आएँ मेरे भी आँगन,
भीगे भागे, कुछ नम होकर।
बरसें गाँव-गाँव,
ना आँखों बरसें!
भीगें खलिहान,
ना बागें तरसें!
अब तो याद भी रहता है के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!