Thursday, July 8, 2010

खाब भी बरसते हैं


कभी सुना भी था के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!
मैने देखा था बीते रोज़,
नहीं बरसे थे, बादल मेरे गाँव,
बस आँखें बरसीं थीं!
खाली  थे खलिहान भीगने को,
बागें तरसीं थीं! 
अबके फ़िर उठे हैं खाब
समंदर से गर्म होकर,
आएँ मेरे भी आँगन,
भीगे भागे, कुछ नम होकर।
बरसें गाँव-गाँव,
ना आँखों बरसें!
भीगें खलिहान,
ना बागें तरसें!
अब तो याद भी रहता है के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!

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