Wednesday, July 28, 2010

छू लेने को ज़मीं,


गुज़रे वो दिन,मुमकिन
अब के फ़िरे हैं,
छू लेने को ज़मीं,
जो बादल गिरे हैं!

देख आया हूँ मैं
खोदकर ज़मींने,
जगहों-जगहों पे मुझको
चश्में मिलें हैं!

बाँधकर हकीकत से
डुबो आया था जिनको,
परछाँईं में पानियों की
फ़िर वो सपने दिखे हैं.

बनी राहों की कोई,
दरकार किसे है?
पाने को मंज़िल जो,
हम बे-मंज़िल चले हैं!







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