पुर-ज़ोर कोशिशो से खफ़ा होकर
दौरे-ज़िक्र होने से हर साँस,
जब तू जवाब दे ही बैठती है!
तो मालूम होता है...
तेरे अलफ़ाज़ काँटो से
धँस गये हैं और
चोट तो ये बखूबी
कर जाते हैं जी में...
फ़िर जब सुबहो को उठता हुँ
तो पाता हुँ के तेरे वो लफ़्ज़
टाकों के धागों से अब
गल कर काफ़ूर हैं जी से।
कहीं कोई नामोनिशाँ नहीं है
सब कुछ उजला-उजला सा
दुरुस्त है अपनी जगहा
बाकी अब कोई भी दर्द
कोई छाँव नहीं है।
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