ये जलते दिन और ये अमलतास,
कुछ करीबी नाता जान पड़ता है अब
सूरज से इसका.
मालूम होता है,
रोज रात को सूरज इसकी
शाखों में झूले झूलता है.
और सुबहो में कभी चुप चाप
अपने ठिकाने हो लेता है.
लेकिन वो रात की कुछ मंद लपटें,
इसकी शाखों में उलझी रह जातीं हैं,
और पूरे दिन झूलतीं रह जातीं हैं...
कल रात मेरा जी भी तो...
तुम्हारी कुनगुनी बातों में
ढल जाया करता था...,
ढल जाया करता था...,
सुबहो तलक अपनी बातों में जी को
तेज़ झूले झुलाया करता था...
लेकिन अबकी इस खामोश दुपहरी में
जी की शाखों में झूलती बातें,
मुझे अब उलझाने भी लगीं हैं !
रह रहकर जी को जलाने भी लगीं हैं !
कहीं ये अमलतास भी...
अनजाने में यही तो नहीं कहता रहा है...
मेरे जी सरीका यूँ ही जलता रहा है... !!!
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