इतना कुछ लिया है तुमसे
के मेहसूस करने लगा हूँ मैं,
ये बसंत का मौसम है और
कोइ दरख्त हो गया हूँ मैं।
नये पत्तों,हरी कोंपलों से ढका
रहा कुछ भीग गया हूँ मैं।
रही उपर को बढ़ती फ़िर
कोई सीलन सी है।
उठती पेट से हुई
कोई गुदगुदी सी है।
पहुँचती आँखों तलक
जी को सींचती सी है।
और फ़िर मूँद लेने पे आँखें
दिखती कहीं खाबों मे जाके
उड़ती फ़िरती
कोई तितली सी है
और कभी जी पे बरसती
बदरी सी है।
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