Saturday, July 25, 2020
Wednesday, January 12, 2011
वो तारीखें
वो तारीखें
सब उम्मीदें गर्द और
हर खाहिश तल्ख़* है!,
पलकों के ताबूतों में,
हर खाब सोए-सोए से!
गुज़री नम तारीखें भी,
उजली-सी खाहिशों के साथ,
चुन दी जाती है 'ग़यास'-
गए साल की दीवारों में...
पर क्या करूँ के यहाँ तक?
इन नयी तारीखों में भी-
आती है तुम्हारी ही सदा-
उन दीवारों से!
पर तुम नहीं आते!!!
पर तुम नहीं आते!!!
*तल्ख़ = कड़वा , Bitter in taste
Saturday, November 20, 2010
सिर्फ हमारे सिवा!
इधर तो फुरसतों की बारिश है,
उनके लिए !
और हम भी सराबोर नहाये हुए!
लेकिन हाल-ए-जाना,
तो कुछ ना पूछो 'ग़यास' -
हर ख़याल हैं मशगूल
सिर्फ हमारे सिवा!
कायदा-ए-आशिकी
जी की बातों की जद्दोजहद में,
ये उनका बार बार मुझको रोक देना!
जताने की हर कोशिश को मोड़ देना,
अंधेरी खामोशी की पसंदगी है!
उजाले के हर शोर को,
तबस्सुम पे ऊँगली रख कर
ना बताने को बोल देना!
समझायें किस कदर उनको
कायदा-ए-आशिकी 'ग़यास'
के इसमें बार बार बताने की नहीं
जताने की कवायद होती है !
Tuesday, October 26, 2010
पानी भी ज़ुरूर होता है!
दिन के बोझ तले,
जाने कहीं जब?
फुर्सत दबी रह जाती है, और
ऐसे-ऐसे कई रोज़ गुज़र जाते हैं!
तो महसूस होता है के,
रिश्तों में कुछ ऐठन सी आने लगी है !
मरासिमों की वो नरमाहट,
बुरादा होकर झड़ने-सी लगी है !
और फिर जब,
तुम्हारा कोई पैग़ाम, छोटा सा सही,
कभी जो मुझ तक, पहुँच जाता है,
तो ये एहसास भी हो जाता है,
के रेगिस्तान के राही का,
नकली पानी का वो असली सपना भी ,
कितना हौसलेमंद होता है!
जो ये महसूस करा देता है
के प्यास बुझाने वाला कुछ-
पानी भी ज़ुरूर होता है!
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें
जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
लफ्ज़ मोगरे की रंगत के !
कुछ मिसरे नक्श तुम्हारे लिए!
नज़्म जो मुस्काए तुम-सी,
कुछ तुम-सा सरे आम करे!
हम घावों की रंगीं महफ़िल में,
इक ज़ख्म तुम्हारे तुम्हारे नाम करें!
जाने क्यूँ खाहिश होती थी,
इक नज़्म तुम्हारे नाम करें.
Sunday, October 3, 2010
रिश्तों की बेहिसाबी में
रिश्तों की बेहिसाबी में,
इक यूँ भी रात आई-
उनकी इक मुबारक के,
शुक्रिया तीन अदा हुए!
जो बातें चलीं,
तो सामने बात आई-
के फिर मिल गए तो
फिर गुमशुदा हुए!
जो पढ़ गए औ' बढ़ गए
तो तो कुछ नहीं!
जो रुक गए कुछ देर तो ,
तो गम-ज़दा हुए!
मुलाकातें नहीं बस,
बातें हुईं थीं!
नाज़ुक तो थे हालात,
अब खुशनुमा हुए!
रिश्तों की बेहिसाबी में,
इक यूँ भी रात आई-
उनकी इक मुबारक के,
शुक्रिया तीन अता हुए!
Wednesday, September 22, 2010
हाल कैसे हैं आज कल?
यूँ वक़्त गुज़र
तो रहा है सुकूँ से,
लेकिन वही कसक
उठ भी जाती है फिर से,
ज़हन-ओ-जी हलकान हुआ जाता है!
जब पूछ देते हो तुम की -
"हाल कैसे हैं आज कल?"
कुछ गिरता उठता सा
शोर होता तो रहा है जी से.
पर जाने क्यूं नब्ज़
बुत हो भी जाती है फिर से,
जब हकीमी लिबास में तुम
रखकर अपना हाथ इस पे
पूछ देते हो और के -
"हाल कैसे हैं आज कल?"
Thursday, September 9, 2010
दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं.
साँसों के सफ़र में,
चलकर मीलों
दो ही बिल्लाश्तों की
संजीदा ज़िन्दगीयाँ नापी हैं.
ठहरी भीड़ों में ठिठुरते यूँ भी,
सटकर तन्हाईयाँ तापी हैं !
सुबहो से सांझ इस तरह,
चलती हैं साँसों पे साँसे
के ऊबकर साँसे हमने ,
रखके साँसों पे काटी हैं!
इस ज़िंदगी के टुकड़े कई करके
थोड़ी थोड़ी सबमे बाँटीं हैं!
बस दो ही बिल्लाश्तों की संजीदा,
ज़िन्दगीयाँ नापीं हैं !
Monday, August 16, 2010
रहे मौसम छक के,जो बरसे पानी
किसी मंजिल पे जाकर,कोई रुकता कहाँ है?
राहें तो ख़त्म हैं लेकिन,ये सफ़र थकता कहाँ है?
रहे मौसम छक के,जो बरसे पानी,
यूँ ज़मीं से जल्दी,सूखता कहाँ है?
बो भी दूँ ज़मीं में कहीं सगी बातें दो चार,
रुकने तक लम्हों के वो पनपता कहाँ है?
सच बोल कर खुद से,जीता आया हूँ मैं
पर यहाँ कोई अब सच को सुनता कहाँ है?
Sunday, August 15, 2010
इस सूखे सफर में कहीं
इस सूखे सफर में कहीं
भीगा कोई मुकाम करें,
इक मुलाकात और सही,
इक और अस्सलाम करें.
फिर तो नसीबन मुरझाने को,
हर गुलसितां है,
उठ जाने को बा-किस्मत ,
हर इक कदम है!
जब तक चलें, रुक-रुक के सही,
कुछ तो कलाम करें!
इक मुलाकात और सही,
इक और अस्सलाम करें!
Wednesday, July 28, 2010
होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा,और कोइ खुशबास हो जाऊँ!
होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा
और कोई खुशबास हो जाऊँ!
जन्ज़ीरें पिघल जाएं,
और मैं आज़ाद हो जाऊँ!
किसी नदी मे बहकर,
कोई समन्दर छू आऊँ!
या बादल का कोई,
टुकड़ा हो जाऊँ!
छनक के बरसूँ,
किसी तपते हुए जी पर ,
और छूकर भाप हो जाऊँ!
किसी मन्दिर को जाती
कोई राह हो लूँ,
कभी नमाज़ मे घुलकर,
अजान के सुरों चढ़कर,
कोई अरदास हो जाऊँ!
आपे मे कितनों को,
लादे फ़िरता हूँ खुद पर!
पटक कर इनको कहीं,
ज़रा बे-आप हो जाउँ!
होता रहूँ होम ज़रा-ज़रा
और कोई खुशबास हो जाऊँ!
छू लेने को ज़मीं,
गुज़रे वो दिन,मुमकिन
अब के फ़िरे हैं,
छू लेने को ज़मीं,
जो बादल गिरे हैं!
देख आया हूँ मैं
खोदकर ज़मींने,
जगहों-जगहों पे मुझको
चश्में मिलें हैं!
बाँधकर हकीकत से
डुबो आया था जिनको,
परछाँईं में पानियों की
फ़िर वो सपने दिखे हैं.
बनी राहों की कोई,
दरकार किसे है?
पाने को मंज़िल जो,
हम बे-मंज़िल चले हैं!
Thursday, July 8, 2010
खाब भी बरसते हैं
कभी सुना भी था के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!
मैने देखा था बीते रोज़,
नहीं बरसे थे, बादल मेरे गाँव,
बस आँखें बरसीं थीं!
खाली थे खलिहान भीगने को,
बागें तरसीं थीं!
अबके फ़िर उठे हैं खाब
समंदर से गर्म होकर,
आएँ मेरे भी आँगन,
भीगे भागे, कुछ नम होकर।
बरसें गाँव-गाँव,
ना आँखों बरसें!
भीगें खलिहान,
ना बागें तरसें!
अब तो याद भी रहता है के
खाब भी बरसते हैं
सरक से !
और उगते हैं ज़मीं पर
सब्ज़ा होकर!
Saturday, June 26, 2010
तो क्या खाब की बातें, क्या खयाल की?
जो दिनों ना हों बस्तियाँ,
ना रातें ही रहायशी !
तो क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?
ना रातें ही रहायशी !
तो क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?
साँसें सुलग जातीं हैं,
और धुँआँ नहीं बुझता!
आँखें लहक जातीं हैं
पर खाब नहीं उठता!
जो दफ़न हर जवाब
करते हों धुँआँ हर सवाल!
तो क्या जवाब की बातें,
क्या सवाल की?
और धुँआँ नहीं बुझता!
आँखें लहक जातीं हैं
पर खाब नहीं उठता!
जो दफ़न हर जवाब
करते हों धुँआँ हर सवाल!
तो क्या जवाब की बातें,
क्या सवाल की?
जो छीन कर,
बूंदें सरक से,
दरिया उबलता है !
पर डूब कर जिसमे
फ़लक की महक ना मिलती हो !
तो क्या छूट जाने की बातें,
क्या विसाल की ?
बूंदें सरक से,
दरिया उबलता है !
पर डूब कर जिसमे
फ़लक की महक ना मिलती हो !
तो क्या छूट जाने की बातें,
क्या विसाल की ?
जो लिख देने से मेरे,
आँखों कोई लम्हा ना उतरा हो!
या पढ़ देने से जी,
कुछ देर ना थम जाये !
तो क्या 'गालिब' की बातें
क्या 'गयास' की?
क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?
आँखों कोई लम्हा ना उतरा हो!
या पढ़ देने से जी,
कुछ देर ना थम जाये !
तो क्या 'गालिब' की बातें
क्या 'गयास' की?
क्या खाब की बातें,
क्या खयाल की?
When I couldn't behold Days
altogether the nights
what could I say
for the dreams
and the sights
when breath burns up
but fume doesn't stop
eyes get grilled but
dreams don't hop
when buried all replies
smoke up the asked
what could I say for answer
and what for asked.
Snatching droplets
from the sky
springs spring up
without being shy
on diving deep
into the river
one can't get fragrance
of the sky
What could I say for 'Hi'
and what for 'Bye'
On the writing of mine
one can't remember past
on reading some line
hearts don't say 'Alhas!'
then abandon the 'Ghalib'
and leave the 'Ghayas'
what could I say
for the dreams
and what for thoughts
Thursday, June 24, 2010
एक टक निहारता हूँ
एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से,
कागज़ पर फ़ैले,
अधूरे खयालों को-
तो हम-कदम ये वक्त
कुछ देर को,
थम सा जाता है !
और मासूम कोइ खाब
जल-सा जाता है !
खयालों से लदीं
पलकें झँप जातीं हैं,
और फ़िसलकर दो बूंदं खाब
किस्से को एक मोड़
'और' दे जाते हैं।
मुझे कुछ मायूस ,
'और' छोड़ जातें हैं
एक टक निहारता हूँ
जब कभी फ़ुर्सत से -
तो बचा रहा वो खयाल
कुछ खल-सा जाता है !
थमा-थमा सा कुछ
चल-सा जाता है !
Monday, June 7, 2010
कोई सूरज ढलता है तो कोई चाँद निकलता है
इन अंधी राहों का
बहरा मुसाफिर
यूँ बन के चलता है ,
कद से सवा इंच को
और तन के चलता है.
रह रह के होठ बस
यही बोल पकड़ते हैं -
" अनजानी राहों का
मैं मस्ताना राही,
कोई सूरज ढलता है
तो कोई चाँद निकलता है "
कहाँ कौन हुआ फुर्सत से
जो बैठे देर कुछ सोचे
किस सूरज के साथ कहाँ
कौन ढल जाये ?
कोई चाँद फलक आये
कहाँ कौन निकल जाये ?
Thursday, June 3, 2010
ख़यालों की खुली झालर बाँध लें
ख़यालों की खुली झालर बाँध लें
उम्मीदों पे बातें टिका कर
ज़रा दिनों को आराम दें,
के यूँ भी कई रातों से हमसे
कई रातें नाराज़ हुई बैठीं हैं !
कहती हैं - -
बस दिन ही दिन मनाते हो ,
आओ कुछ तो खाब सजा लें ! ?
अब इसे कुछ जवाब दें ही दें
और ज़रा देर को ही सही
जी को बांधकर
किसी मटके में डाल दें ,
किसी नखलिस्तान* से
कुछ सुकूँ मांग लें,
Tuesday, June 1, 2010
बंद किये कमरा, कोई बैठा रहता है... !
बंद किये कमरा
कोई बैठा रहता है !
ख़याल ज़मीं पे
रेंगा करता है !
जो बाहर से कोई
बुला बैठता है,
खाब दीवारें
चढ़ने लगता है !
चाहे कितना ही
ना कह दें उसको,
बोझिल बातों की,
जी कहाँ सुनता है ?
और फिर मुंह के
बल गिरता है!
Sunday, May 30, 2010
कई गांठें जिन्दगी की
Saturday, May 29, 2010
कदम बार बार
कदम बार बार
थमनें को कहते हैं,
अध-खुली आँखें
कराहती रहतीं हैं,
जैसे जी के ज़ख्म
सराहती रहतीं हैं.
जिगर ज़ार ज़ार औ'
धडकनें महफूज़ हुईं,
सांसें थकी-थकी सी
बैठने को कहतीं हैं,
लगता है अब में सब
उठने को है लेकिन ,
तुम्हारी बातें हैं के
गहराती रहतीं हैं ?
मुझसे, मुझको
बहकाती रहतीं हैं!
Friday, May 28, 2010
ये टूटा चुल्हा
टूटा चूल्हा देखकर
मालूम होता था-
कोहरे के बिछौने पे
यहाँ कोई सोता था।
और जब देर रात कभी
ज़ोर का जाड़ा होता हो,
तो उठकर, ये ठंडा चूल्हा
टटोलता हो।
काश! बुझी बात का
कोई टुकड़ा अब भी
जलता हो!
और नाउम्मीद फ़िर
यही सोचता हो-
साँझ तो बातें बुझी हैं,
सुबहो तलक
हर खाब गबन होगा!
इसी चूल्हे में सिमटकर
फ़िर खुद आप हवन होगा!
करीब से देखो
तो तुम्हे भी
यही मालूम होगा
ये टूटा चूल्हा, ये बुझी आग
बहुत जाग कर कोई
एक नींद को सोता होगा...!
Thursday, May 27, 2010
परेशानियों का मेरी सबब है जो
परेशानियों का मेरी सबब है जो,
दर-असल वो मेरा मददगार भी है.
उम्र-ए-दराज़ की जो सजा पायी है मैंने
इसमें कुछ तो वो गुनाहगार भी है.
यूं अनजाने क्या कुछ कहता फिरा उसको
बयान-ए-होश तो परवरदिगार ही है.
ख़यालों में 'गयास' खिला गुल नहीं वो
मौसम-ए-बहार में बेशुमार भी है.
Wednesday, May 26, 2010
नज़्म से ही बातें किया करते हैं!
अब तो बस नज़्म से
ही बातें किया करते हैं!
अरसों की मुलाकातें
बस यहीं हुआ करतीं हैं।
बाहर के शराबे में कुछ
कहें-सुनें भी तो कैसे?
सन्नाटों में वो आहट
बस यहीं मिला करतीं हैं।
सब ओर सब सुखा
विराना सा लगता है,
जी कि दो-बातें, दो-कलियाँ
बस यहीं खिला करतीं हैं।
अब तो बस नज़्म से
ही बातें किया करते हैं!
जी भर के दो-साँसे
बस यहीं लिया करते हैं।
Tuesday, May 25, 2010
कोई बबूल उग गया है!
छटपटाहट जी को
ऐसी होती है के,
हर सूरज आरज़ू का
बुझ गया है!
कुछ तो खालीपन है ,
कि कुछ लुट गया है!
शोर सन्नाटे का अब
होता है जैसे
एक ही पल में सब
फुँक गया है!
देखो तो अभी-अभी
राख के ढेर से
बंजर से वहां,
फ़िर कोई बबूल
उग गया है!
Sunday, May 23, 2010
याद आती है इतनी क्यूँ, फिर माँ की आज
याद आती है इतनी क्यूँ, फिर माँ की आज
अरसे से उसे गर पल को भी भुलाया होगा ?
चूल्हे की आंच में जो, रखती होगी वो लिट्टियाँ,
मुझे बुला कर पास चूल्हे ने, जरूर उसे रुलाया होगा...
या फिर ..
नीली पैंट, सफेद कमीज़ पहिने, घर को लौटता
स्कूल का कोई लड़का उसको नज़र आया होगा,
और दशक पीछे की बातें कहकर के
आंसुओं में आँचल फिर नहाया होगा...
अब इतनी दूर से , क्या ही कर सकता हूँ माँ ?
लूँगा आकर खबर इनकी, वो चूल्हा, वो लिट्टी
और वो स्कूल का लड़का
जो इन्होने तुझको रुलाया होगा ...
लेकिन फिर माफ भी तो कर देता हूँ
हर किसी को ये सोचकर -
इसकी भी कोई माँ होगी, उसका ये बेटा होगा.
क्या कहूँ तुझको जो, इतनी भोली है
सोचा है बैठकर फुर्सत से जब कभी,
जाने कितना ही इन आँखों से भी
थम-थम कर पानी आया होगा.
याद आती है इतनी क्यूँ, फिर माँ की आज...
स्कूल का कोई लड़का उसको नज़र आया होगा...
मुझे बुला कर पास चूल्हे ने, जरूर उसे रुलाया होगा..
Saturday, May 22, 2010
धीमें से फ़ासला
बड़े धीमें से फ़ासला
यूँ बीच में घर करता था,
और एक कदम को जब
ज़रा सा बढ़ता था,
सूखी आँख में कोई
निशाँ सा बनता था |
जो पूछ देते थे
आँखों में झाँकने वाले
के इन्हें हुआ क्या है?
मैं कह देता था -
"कुछ नहीं बस...
इक खाब ही था... ,
जो इन आँखों को
जख्मी करता था !"
...बड़े धीमे से फ़ासला ,
यूँ बीच में घर करता था... |
Description : Very slowly there creeps in differences between the lover and the beloved.
and as the distance grows a little greater, it puts hard pain in the already dried eyes of the
lover and there by such signs can be clearly seen in the eyes.
When asked by the near and dear ones about what had happened to yours eyes? He used to
honestly reply- "Its nothing but there was a dream in the eyes for so long and it had been
paining like a thorn there and thus there is the sign in the eyes." and now the distances are there.
Sunday, May 9, 2010
जंगली सही कुछ
सरे बाज़ार यूँ हर पेड़,
है खुश कहाँ?
सोई सी पाती, झुकी सी शाखें,
इसे कुछ रंज होता है !,
खुदी में नज़रबंद होता है !
जंगल में शजर हर कोई
जगी, तनी पातियों में,
हर शाख में तना,
जंगली सही कुछ,
मगर बड़ा खुशरंग होता है !
Saturday, May 8, 2010
ये जलते दिन और ये अमलतास
ये जलते दिन और ये अमलतास,
कुछ करीबी नाता जान पड़ता है अब
सूरज से इसका.
मालूम होता है,
रोज रात को सूरज इसकी
शाखों में झूले झूलता है.
और सुबहो में कभी चुप चाप
अपने ठिकाने हो लेता है.
लेकिन वो रात की कुछ मंद लपटें,
इसकी शाखों में उलझी रह जातीं हैं,
और पूरे दिन झूलतीं रह जातीं हैं...
कल रात मेरा जी भी तो...
तुम्हारी कुनगुनी बातों में
ढल जाया करता था...,
ढल जाया करता था...,
सुबहो तलक अपनी बातों में जी को
तेज़ झूले झुलाया करता था...
लेकिन अबकी इस खामोश दुपहरी में
जी की शाखों में झूलती बातें,
मुझे अब उलझाने भी लगीं हैं !
रह रहकर जी को जलाने भी लगीं हैं !
कहीं ये अमलतास भी...
अनजाने में यही तो नहीं कहता रहा है...
मेरे जी सरीका यूँ ही जलता रहा है... !!!
Wednesday, May 5, 2010
वर्ना, सन्नाटों में अब, वो 'गयास' नहीं होता !
चहल कदमी उन बातों की, जो होवे दूर तलक
लौट आने का मुमकिन, इंतज़ार नहीं होता.
जी से थमनें की आहटें होती हैं बस
आगे किसी धड़कन का, आगाज़ नहीं होता.
बेवक्त रुकी खामोशी से, कैसे चलेगा सफ़र ?
मौका-ए-चर्चे में और, कुछ ख़ास नहीं होता.
चलते चले जायेंगे हम, जो ये बातें चलेंगी
वर्ना, सन्नाटों में अब, वो 'गयास' नहीं होता !
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